हिसाब से चलना.....

हमें अक्सर शिकायत रहती है कि फलां इंसान हमारे हिसाब से नही चलता और यहाँ तक कि हम गहराई से सोचेंगे तो कोई भी हमारे हिसाब से नही चलता। मैं स्पष्ट करना चाहूँगी की यहाँ हम से तात्पर्य ख़ुद(मैं) से है।
         हर जगह हम यह शिकायत देख सकते हैं पति-पत्नी/ बच्चे-माता-पिता/ कर्मचारी-नियोक्ता......अब यहाँ मैं लिस्ट बनाने तो बैठी नही हूँ तो, चलिये मुद्दे पर आते हैं । हम एक समय बाद चिढ़ जाते हैं यदि कोई हमारे हिसाब से न चले और इसका परिणाम या तो सामने वाला भुगतता है या मानसिक तनाव के रूप में हम स्वयं।
       अब जरा गौर फरमाएं क्या आप खुद हिसाब से चलते हैं ? और किसी के हिसाब से तो छोड़िए क्या आप स्वयं के हिसाब से चलते हैं ? आप हमेशा अपने लिए कई तरह के हिसाब बनाते हैं जैसे कल से रोज सुबह सैर पर जाऊँगा/जाउंगी , अब से फिजूलखर्ची नही, अब से नशा बंद या छोटा-बड़ा किसी भी प्रकार का हिसाब हम कितनी ही बार बनाते हैं । पर ईमानदारी से कहिए इनमे से कितने हिसाब हम लागू करते हैं ? यक़ीनन, संख्या उंगली पर गिनने बराबर होगी।
        तो इस बार का मेरा सरल सा लॉजिक यह है कि जब आप खुद अपने हिसाब से नही चल सकते तो दूसरों से कैसे ऐसी उम्मीद रख सकते हैं । कोई एक सीमा तक ही आपके हिसाब से चल सकता है या कहें कि चलने की कोशिश कर सकता है। और अगर वह आपके हिसाब से  चलता भी है तो काफ़ी हद तक संभावना है कि आपको फिर भी संतुष्टि नही होगी आपको कोई न कोई कमी नज़र आ ही जाएगी। तो खुद को जबरदस्ती दूसरों पर थोपना बंद कीजिए संतुलन बनाने की कोशिश कीजिए। सभी को अपने हिसाब से जीने की स्वतंत्रता होती है तो क्यों दूसरे द्वारा बात न मानने पर हम अपना दिमाग खराब करें, ज़रा सामने वाले के नजरिए से भी सोचकर देखिये ।

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